Tuesday 28 March 2017

दिन बडी खुश्की सा गुज़र जाता है,

दिन बडी खुश्की सा गुज़र जाता है,
ऐसी स्फूर्ती से अपना कारोबार समेटता है की मानो वो लम्हें चुराने ही आया था,
चाँद ने चद्दर खींची भी नही की फिर देहाडी ने दस्तक दी,
इस शहरी कोलाहल में भी वो दबे पाँव सरक जाता,
मैंने अपने पुर्जे घिसना शुरु भी नही किया की धुल उडने लगी,
अभी अपनी कल्पनाओं को आँखों के तलवो से मसला भी नही के वो झांसा देकर निकल गया,
समंदर के पानी से वो सोना चुराकर भाग निकला, पत्तियों से अपनी बातें अधूरी छोड चला,
लेकिन जब वो बरगद से होकर गुज़रता, उसके पाँव धीरे पड जाते।
दिन बडी खुश्की सा गुज़र जाता है,
लेकिन कितनी ही चालाकी कर ले, वो बंहदार कुर्सी वाली बुढ़िया उसे कैद कर ही लेती,
उसकी दहाईयों की गवाह फीकी त्वचा ने ना जाने कितने ऐसे खुश्क लम्हों को खामोशी से बसने दिया था।
@BhargavPurohit

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